कृत्रिम बारिश (Artificial Rain) और प्रदूषण प्रबंधन

कृत्रिम बारिश, जिसे क्लाउड सीडिंग के रूप में भी जाना जाता है, एक उन्नत मौसम संशोधन तकनीक है जिसका उद्देश्य बादलों में विभिन्न पदार्थों को फैलाकर वर्षा को प्रेरित करना होता है। यह तकनीक विशेष रूप से उन क्षेत्रों में उपयोग की जाती है जहां सूखा या जल संकट की समस्या है। हालांकि इसे प्रदूषण को कम करने के लिए प्रत्यक्ष रूप से उपयोग नहीं किया जाता है, लेकिन इसकी अप्रत्यक्ष भूमिका के कारण कई क्षेत्रों में इसे अपनाया गया है।

 

क्लाउड सीडिंग मुख्यतः सिल्वर आयोडाइड, पोटेशियम आयोडाइड या तरल प्रोपेन जैसे रसायनों के उपयोग पर निर्भर करती है। ये रसायन बादलों में नाभिक के रूप में कार्य करते हैं, जिनके चारों ओर पानी की बूंदें इकट्ठा होती हैं और बाद में वर्षा के रूप में धरती पर गिरती हैं। यह प्रक्रिया सूखे की स्थिति में विशेष रूप से सहायक हो सकती है, लेकिन इसके प्रदूषण नियंत्रण में योगदान पर अभी भी विचार-विमर्श जारी है।


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कृत्रिम बारिश की प्रक्रिया:

क्लाउड सीडिंग में उपयोग किए जाने वाले रसायनों जैसे सिल्वर आयोडाइड और पोटेशियम आयोडाइड की मदद से बादलों के अंदर संघनन को बढ़ावा दिया जाता है। जब ये पदार्थ बादलों में छोड़े जाते हैं, तो यह नाभिक की भूमिका निभाते हैं और पानी की बूंदें इनके चारों ओर इकट्ठा होने लगती हैं। इस प्रक्रिया में पानी या बर्फ के कण बढ़ने लगते हैं, जिससे वर्षा या हिमपात की संभावना बढ़ जाती है।

 

कृत्रिम बारिश के पीछे की सोच यह है कि यदि प्राकृतिक वर्षा की कमी हो रही है, तो यह तकनीक उसे बढ़ावा दे सकती है। इस तकनीक का प्रयोग चीन और मध्य पूर्व जैसे देशों में 1940 के दशक से किया जा रहा है। चीन ने विशेष रूप से प्रमुख कार्यक्रमों में इसका इस्तेमाल किया है ताकि जल संकट को हल किया जा सके। लेकिन क्या यह तकनीक प्रदूषण से निपटने में भी मदद कर सकती है?

 

प्रदूषण से निपटने में कृत्रिम बारिश की भूमिका:

कृत्रिम बारिश के माध्यम से प्रदूषण का समाधान एक जटिल मुद्दा है। हवा में प्रदूषक तत्व अक्सर बहुत छोटे होते हैं और वर्षा के द्वारा उन्हें हटाना एक कठिन काम है। हालांकि, बारिश कुछ हद तक हवा में मौजूद धूल और कणों को धरती पर लाने में मदद कर सकती है, जिससे हवा की गुणवत्ता में सुधार हो सकता है।

 

हालांकि, यह ध्यान रखना जरूरी है कि कृत्रिम बारिश का उद्देश्य प्रदूषण नियंत्रण नहीं होता। वायु प्रदूषण में कार्बन डाइऑक्साइड, सल्फर डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड और अन्य हानिकारक गैसों जैसे प्रदूषकों की उपस्थिति होती है। केवल वर्षा से इन सभी प्रदूषकों को खत्म करना संभव नहीं है। फिर भी, भारी वर्षा से हवा में तैरने वाले कुछ कण और धूल को हटाया जा सकता है, जिससे एक अस्थायी राहत मिल सकती है।

 

आईआईटी कानपुर का दृष्टिकोण:

भारत में आईआईटी कानपुर जैसे संस्थान कृत्रिम बारिश की क्षमता का प्रयोग करके प्रदूषण से निपटने के प्रयासों में जुटे हैं। आईआईटी कानपुर ने दिल्ली में प्रदूषण के स्तर को कम करने के लिए क्लाउड सीडिंग पर परीक्षण करने का विचार रखा है। इस परियोजना के तहत बादलों में रसायनों को छोड़ा जाएगा ताकि वर्षा हो सके और प्रदूषक कण हवा से नीचे गिर सकें।

 

आईआईटी कानपुर का यह प्रयास एक अस्थायी समाधान के रूप में देखा जा रहा है, लेकिन यह समाधान प्रदूषण की गंभीर समस्या का दीर्घकालिक समाधान नहीं है। इसके साथ ही, कृत्रिम बारिश से उत्पन्न होने वाले पर्यावरणीय और नैतिक मुद्दों पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है।

 

वैश्विक संदर्भ:

चीन और मध्य पूर्व में क्लाउड सीडिंग का व्यापक उपयोग किया जाता है। चीन ने विशेष रूप से बड़े पैमाने पर इस तकनीक का उपयोग किया है, खासकर महत्वपूर्ण घटनाओं के दौरान ताकि वातावरण में पानी के कणों को बढ़ाया जा सके और वायु गुणवत्ता को कुछ समय के लिए बेहतर किया जा सके। लेकिन इस तकनीक की प्रभावशीलता हर जगह समान नहीं होती। वायुमंडलीय स्थितियों के आधार पर इसका प्रभाव भिन्न हो सकता है, और इसलिए हर देश या क्षेत्र में इसे अपनाना व्यावहारिक नहीं हो सकता है।

 

लागत और चुनौतियाँ:

कृत्रिम बारिश की प्रक्रिया बेहद महंगी होती है। आईआईटी कानपुर के अनुसार, दिल्ली जैसे बड़े शहर में एक सफल क्लाउड सीडिंग प्रक्रिया की लागत करोड़ों में हो सकती है। अनुमानित रूप से, इस तकनीक को एक वर्ग किलोमीटर क्षेत्र के लिए लगभग ₹1 लाख खर्च किया जा सकता है। इस परियोजना की कुल लागत लगभग 13 करोड़ रुपये आंकी गई है।

 

इस परियोजना के सफल क्रियान्वयन के लिए कई सरकारी एजेंसियों और नियामक निकायों से मंजूरी लेनी पड़ती है, जिसमें गृह मंत्रालय, विमानन प्राधिकरण और सुरक्षा समूह शामिल होते हैं। इसके अलावा, इस तकनीक से जुड़े पर्यावरणीय मुद्दे भी हैं, जैसे महासागरों का अम्लीकरण, ओजोन परत का क्षरण और सिल्वर आयोडाइड जैसे रसायनों के दुष्प्रभाव।

 

कृत्रिम बारिश की प्रभावशीलता और भविष्य:

आईआईटी कानपुर के प्रोफेसर मणींद्र अग्रवाल के अनुसार, यदि कृत्रिम बारिश का सही ढंग से उपयोग किया जाए तो यह दिल्ली जैसे प्रदूषण प्रभावित क्षेत्रों में वायु गुणवत्ता में थोड़े समय के लिए सुधार ला सकती है। दिल्ली में हाल ही में हुई प्राकृतिक बारिश के बाद यह देखा गया था कि हवा की गुणवत्ता में कुछ सुधार हुआ।

 

हालांकि, प्रदूषण नियंत्रण के लिए दीर्घकालिक समाधान केवल कृत्रिम बारिश से नहीं हो सकते। इसके लिए उद्योगों, वाहनों और अन्य प्रदूषण स्रोतों पर सीधा नियंत्रण करना होगा। वायु प्रदूषण को कम करने के लिए सख्त उत्सर्जन मानक लागू किए जाने चाहिए और नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।

 

निष्कर्ष:

कृत्रिम बारिश एक उन्नत तकनीक है जो पानी की कमी से जूझ रहे क्षेत्रों के लिए लाभकारी हो सकती है। हालांकि, प्रदूषण के मुद्दे पर इसका प्रभाव सीमित है और यह समस्या का अस्थायी समाधान ही प्रस्तुत करती है। इस तकनीक के उपयोग में कई चुनौतियाँ हैं, जिनमें लागत, पर्यावरणीय प्रभाव और दीर्घकालिक समाधान की कमी प्रमुख हैं।

 

कृत्रिम बारिश के साथ-साथ प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए ठोस नीतियों और रणनीतियों की आवश्यकता है, जिनमें नवीकरणीय ऊर्जा का उपयोग, सार्वजनिक परिवहन को प्रोत्साहन, और हरे क्षेत्रों की सुरक्षा जैसे कदम शामिल हैं। जैसे-जैसे कृत्रिम बारिश की तकनीक में सुधार होता है, यह देखना होगा कि यह पर्यावरण प्रबंधन में किस तरह की भूमिका निभा सकती है
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